पंद्रहवीं सदी में उत्तर भारत में मेवाड़ एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभर कर सामने आया था.
मेवाड़ की नींव रखी थी बप्पा रावल ने जो गुजरात से आकर राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी इलाके़ में बस गए थे.
अपने भाइयों से सत्ता संघर्ष के बाद सन 1508 में राणा सांगा मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे.
उस समय उनकी आयु थी 27 वर्ष. राणा सांगा ने मेवाड़ की गद्दी पर बैठते ही अपना विजय अभियान शुरू कर दिया था. सबसे पहले आबू और बूंदी ने संधि का मार्ग अपनाया.
आमेर की सेना ने जब मेवाड़ पर हमला किया तो राणा सांगा ने आमेर के राजा माधो सिंह को बंदी बना लिया.
सतीश चंद्रा अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ मिडियवल इंडिया' में लिखते हैं कि सन 1517 में हुई लड़ाई में राणा सांगा मालवा के शासक महमूद द्वितीय को बंदी बनाकर चित्तौड़ ले आए थे.
उसी साल इब्राहिम लोदी ने मेवाड़ पर हमला किया लेकिन उसे खतौली में राणा सांगा के हाथों हार का सामना करना पड़ा.
सतीश चंद्रा लिखते हैं, "इसी लड़ाई में एक तीर ने राणा सांगा के बाएँ बाजू के कवच को भेद दिया. राणा के प्राण बचाने के लिए वैद्य ने उस हाथ को काट डाला क्योंकि पूरे शरीर में ज़हर फैल जाने का ख़तरा हो गया था. बहुत दिनों बाद वो स्वस्थ हुए. लेकिन उनका अब एक हाथ ही रह गया था. राणा सांगा ने हिम्मत नहीं हारी और एक हाथ से ही उन्होंने नियमित तलवारबाज़ी का अभ्यास किया."
यह वही समय था जब फ़रग़ना घाटी में जन्मा बाबर भारत के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा था.
बाबर के पास पहुँचे दूत1526 में हुई पानीपत की निर्णायक लड़ाई से कुछ महीनों पहले, दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी के दरबार के कुछ लोग उसके बेटे दिलावर ख़ाँ के नेतृत्व में बाबर से मिलने पहुंचे थे. उन्होंने बाबर से कहा कि वह भारत आकर लोदी को सत्ता से हटा दे.
उनका कहना था कि इब्राहिम लोदी तानाशाह है और अपने दरबारियों का समर्थन खो चुका है.
बाबर ने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में लिखा है, "जब हम काबुल में थे, मेवाड़ के राजा राणा सांगा का भी एक दूत उनकी शुभकामनाएँ लेकर मेरे पास आया था. उसने अपनी योजना बताई थी कि वो आगरा की तरफ़ से इब्राहिम लोदी पर हमला करेंगे. मैंने दिल्ली और आगरा दोनों पर कब्ज़ा किया लेकिन उसने मुझे अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई."
बाबर के चचेरे भाई मिर्ज़ा हैदर भी अपनी किताब 'तारीख़-ए-रशीदी' में ज़िक्र करते हैं कि राणा सांगा का एक दूत बाबर से मिलने आया था. बाबर के एक और जीवनीकार स्टेनली लेन पूल ने भी अपनी किताब 'बाबर' में राणा सांगा के दूत के बाबर से मिलने का ज़िक्र किया है.
एक और इतिहासकार रघुबीर सिंह अपनी किताब 'पूर्व आधुनिक राजस्थान' में लिखते हैं, "राजपूतों की राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी ने राणा सांगा को बाबर को काबुल से आमंत्रित करने के लिए प्रेरित किया था ताकि कमज़ोर इब्राहिम लोदी को लड़ाई में हराया जा सके. इसी तरह राणा सांगा की मृत्यु के बाद उनकी एक रानी कर्मवती को अपने बड़े बेटे विक्रमजीत को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने में मदद करने के लिए अपने दुश्मन बाबर से मदद लेने में कोई हिचक नहीं हुई थी."

जीएन शर्मा अपनी किताब 'मेवाड़ एंड द मुग़ल एम्पर्रस' में सवाल उठाते हैं, "उस समय बाबर की एक योद्धा के रूप में ऐसी कोई ख्याति नहीं थी, इसके अलावा राजपूतों के दूसरे राजाओं के पास दूत भेजने की पहले कोई परंपरा नहीं थी."
बहरहाल, जब 1526 में बाबर पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ तो राणा सांगा का वहाँ नामो-निशान नहीं था. इस बात की तस्दीक ख़ुद बाबर ने बाबरनामा में की है.
बाबरनामा में बाबर ने लिखा है, "पानीपत की लड़ाई में हमारी सेना मात्र तीस हज़ार थी जबकि इब्राहिम लोदी के सैनिकों की संख्या एक लाख थी."
सतीश चंद्रा लिखते हैं, "बाबर के चतुर चालाक नेतृत्व ने अपने से तीन गुना बड़ी सेना को हरा दिया. तोपख़ाने के इस्तेमाल से इब्राहिम लोदी के हाथी भड़क गए थे. वो अपनी ही सेना को रौंदते हुए भागने लगे थे. बाबर की अनुशासित और व्यूह रचना में कुशल सेना ने इब्राहिम लोदी को परास्त कर दिया और दिल्ली पर बाबर का अधिकार हो गया."
1519 में गगरौन की लड़ाई में मालवा के महमूद ख़िलजी द्वितीय को हराने के बाद से राणा सांगा का प्रभाव आगरा के पास बहने वाली नदी पलियाखार तक पहुंच गया था. गंगा की घाटी में बाबर का साम्राज्य अब सांगा के लिए ख़तरा बन गया था.
सतीश चंद्रा लिखते हैं, "बाबर ने राणा सांगा पर समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाया. उसका कहना था कि राणा सांगा ने उसे भारत आमंत्रित कर इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उसका साथ देने का वादा किया था लेकिन बाबर की लड़ाई के दौरान वो उसकी मदद के लिए सामने नहीं आया था. हमें नहीं पता कि सांगा ने बाबर से क्या वादा किया था. शायद उन्होंने ये सोचा होगा कि तैमूर की तरह बाबर भी लूटमार कर वापस चला जाएगा. लेकिन बाबर के भारत में बने रहने के फ़ैसले ने हालात पूरी तरह से बदल दिए."
बाबर का मानना था कि उसके भारत विजय अभियान की सबसे बड़ी बाधा मेवाड़ का राणा ही बनेगा.
हरबंस मुखिया अपनी किताब 'द मुग़ल्स ऑफ़ इंडिया' में लिखते हैं, "वो राणा सांगा की कूटनीति से भी परिचित हो गया था, जब लाहौर विजय के बाद उसे दिल्ली आक्रमण के समय सहायता का आश्वासन तो दिया लेकिन सहायता नहीं दी. बाबर जान गया कि राणा सांगा अफ़ग़ान शक्ति को कमज़ोर कर दिल्ली पर हुकूमत करने का इच्छुक था लेकिन दिल्ली पर हुकूमत करने की इच्छा तो खुद बाबर रखता था."

पानीपत में 1526 में बाबर की जीत के बाद से ही, राणा सांगा के साथ उसकी लड़ाई की भूमिका बनने लगी थी.
इसी दौर में कई अफ़ग़ान जिनमें इब्राहिम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी भी शामिल था, इस उम्मीद में राणा सांगा के साथ हो लिए कि अगर बाबर के ख़िलाफ़ राणा सांगा की जीत होती है तो शायद दिल्ली की गद्दी महमूद लोदी को वापस मिल जाए.
मेवात के राजा इलासन ख़ाँ ने भी राणा सांगा का साथ देने का फ़ैसला किया. क़रीब-क़रीब हर राजपूत राजा ने राणा सांगा के समर्थन में अपनी सेना भेजी.
विलियम रशब्रूक अपनी किताब 'बाबर: एन एम्पायर बिल्डर ऑफ़ द सिक्सटींथ सेंचुरी' में लिखते हैं, "राणा सांगा की शोहरत और हाल ही में बयाना में मिली जीत ने बाबर के सैनिकों की हिम्मत तोड़ दी थी. अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए बाबर ने ऐलान किया कि राणा सांगा के ख़िलाफ़ लड़ाई 'जेहाद' होगी. लड़ाई से पहले उसने शराब के सभी बर्तन तोड़कर ये जताने की कोशिश की कि वो कितना कट्टर मुसलमान है. उसने अपने पूरे राज्य में शराब की ख़रीद-फ़रोख़्त पर प्रतिबंध लगा दिया. अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बाबर ने एक जोशीला भाषण दिया."
राणा सांगा के साथ 1527 के ऐतिहासिक युद्ध के लिए बाबर ने आगरा से 40 किलोमीटर दूर खानवा को चुना.
खानवा की लड़ाई में दोनों पक्ष अपनी पूरी ताक़त से लड़े. बाबर ने बाबरनामा में लिखा, "राणा सांगा की सेना में दो लाख से अधिक सैनिक थे जिनमें दस हज़ार अफ़ग़ान और इतने ही हसन ख़ाँ मेवाती के भेजे सैनिक थे."
हो सकता है कि बाबर ने ये संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताई हो लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि गिनती में बाबर के सैनिक राणा सांगा के सैनिकों से कहीं कम थे.
जीएन शर्मा लिखते हैं, "बाबर की सेना में आगे-आगे सामान से लदी गाड़ियों की पंक्ति थी. ये गाड़ियाँ लोहे की ज़ंजीरों से आपस में बंधी हुई थीं और उसकी सेना के लिए एक तरह से सुरक्षा कवच का काम कर रही थीं. इन गाड़ियों के पीछे तोपें थीं, जो प्रतिद्वंदी को दिखाई नहीं देती थीं. इनके पीछे घुड़सवारों की पंक्तियाँ थीं. पंक्तियों के बीच में रिक्त स्थान थे जहाँ से लड़ाके आगे-पीछे जा सकते थे. इसके बाद हथियारों से लैस पैदल सिपाही थे, सेना के दाएं-बाएं ऐसी बाधाएं खड़ी की गई थीं कि उस तरफ़ से हमले का कोई डर न रहे. एक तरफ़ खाई खोदी गई थी तो दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े पेड़ काटकर डाले गए थे."
शर्मा लिखते हैं, "दूसरी तरफ़ राणा सांगा की सेना को पाँच भागों में बाँटा गया था. सबसे आगे हाथियों की क़तार थी. हाथी का हौदा एक तरह से सुरक्षा कवच था. हाथियों की सूँढ़ पर भी लोहे के कवच पहनाए गए थे. हाथियों के पीछे भालों के साथ घुड़सवार थे. राणा सांगा ख़ुद पहली पंक्ति में एक हाथी पर बैठे थे जिन्हें उनके सभी सैनिक दूर से देख सकते थे. जबकि बाबर अपनी सेना के आगे नहीं, बल्कि बीच में था."
राणा सांगा ने बाबर के दाहिनी तरफ़ हमला बोला और क़रीब-क़रीब इसमें सेंध लगा दी. राणा सांगा ख़ुद लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे.
शर्मा लिखते हैं, "वहाँ मौजूद लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि राणा सांगा की एक आँख नहीं थी. उनका एक हाथ कटा हुआ था. उनका एक पैर भी काम नहीं कर रहा था. उनके शरीर पर घाव ही घाव लगे थे लेकिन इसके बावजूद उनकी फ़ुर्ती और उत्साह में कोई कमी नहीं थी."
लेकिन मुग़लों का तोपख़ाना भी भारी तबाही मचा रहा था. धीरे-धीरे राणा सांगा की सेना पीछे हटने लगी.
जीएन शर्मा लिखते हैं, "इस बीच एक तीर राणा सांगा के माथे पर लगा. सांगा बेहोश होकर अपने हौदे में लुढ़क गए. उनके कुछ सिपहसालारों ने उन्हें तुरंत हौदे से उतारकर पालकी में डाला और बाहर की तरफ़ रवाना कर दिया. राणा की सेना ने देखा कि राणा सांगा हाथी पर नहीं हैं. ये देखते ही उनका मनोबल टूट गया. सैनिकों के पाँव उखड़ गए. एक राजपूत सेनानायक अज्जू झाला ने राणा का मुकुट अपने सिर पर रखा और उनके हाथी पर सवार हो गया. लेकिन राजा की अनुपस्थिति का जो बुरा असर होना था वो हो चुका था. राजपूती सेना की हिम्मत टूट गई और वो तितर-बितर हो गई."
बाबर ने बाबरनामा में लिखा, "इस्लाम के प्रचार के लिए मैं अपना घर-बार छोड़ कर निकला था. इस लड़ाई में मैंने शहीद होना तय कर लिया था. लेकिन ख़ुदा ने मेरी फ़रियाद सुन ली. दोनों सेनाएं थक चुकी थीं. लेकिन तभी राणा सांगा का दुर्भाग्य और मेरा सौभाग्य उछला. सांगा बेहोश होकर गिर गया. उसकी सेना का मनोबल टूट गया. मेरी जीत हुई."
राणा सांगा की हार का कारण था उनकी सेना में अनुशासन और परस्पर तालमेल का अभाव.
विलियम रशब्रूक लिखते हैं, "राणा सांगा की सेना में संख्याबल अधिक था इसलिए सारी सेना को एक साथ संदेश देने में देर लगती थी. मुग़ल सेना का संगठन और अनुशासन राणा सांगा की सेना की तुलना में बेहतर था."
राणा सांगा ने 1527 में खानवा का युद्ध समाप्त होने के बाद प्रण किया कि वो बाबर को पराजित कर ही चित्तौड़ में प्रवेश करेंगे लेकिन वो अधिक दिन नहीं जी सके.
साढ़े 21 वर्ष के अपने शासनकाल में मेवाड़ को साम्राज्य विस्तार के शिखर पर ले जाने वाले राणा सांगा का 47 वर्ष की आयु में ही देहावसान हो गया.
सतीश चंद्रा ने लिखा, "कहा जाता है कि बाबर के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की उनकी ज़िद उनके दरबारियों को पसंद नहीं आई और उन्होंने उन्हें विष दे दिया. राजस्थान से निकले इस बहादुर व्यक्ति के निधन के साथ आगरा तक फैलने वाले संयुक्त राजस्थान के सपने को बहुत बड़ा धक्का लगा."
खानवा की लड़ाई ने दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बाबर की स्थिति को और मज़बूत कर दिया. इसके बाद उसने ग्वालियर और धौलपुर के क़िले भी जीते और अलवर के बहुत बड़े हिस्से को भी अपने राज्य में मिलाया.
सतीश चंद्रा लिखते हैं, "पानीपत की जीत से भारत में मुग़ल शासन की नींव पड़ी लेकिन इस नींव को मज़बूती प्रदान की खानवा में राणा सांगा के ख़िलाफ़ बाबर की जीत ने."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
You may also like
UP Board Result 2025 : ब्रेकिंग न्यूज़: यूपी बोर्ड 10वीं, 12वीं रिजल्ट 2025 की तारीख हुई लीक? जानें क्या है सच!
बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने खुदरा लोन दरों में 0.25 फीसदी की कटौती की
सिरसा:एकजुट होकर संविधान को बचाने के लिए आगे आएं: सैलजा
नारनौलः शहीद महावीर का पैतृक गांव में हुआ संस्कार, सीआरपीएफ ने दी सलामी
पश्चिम बंगाल में हिंसा कहीं से सही नहीं : अन्नपूर्णा देवी