सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फ़ैसले ने आदिवासी स्त्रियों को पैतृक संपत्ति में हक़दार बना दिया है.
यह महज एक क़ानूनी फ़ैसला नहीं है.
यह सदियों पुरानी आदिवासी परंपराओं के समंदर में फेंका गया एक पत्थर है.
इससे पैदा हुई लहरों की गूँज कई जगह महसूस की जा रही है.
यह कहानी शुरू होती है छत्तीसगढ़ के सूरजपुर के मानी गाँव से.
पाँच आदिवासी भाइयों की एक बहन थी धइया. पिता की संपत्ति में धइया की हिस्सेदारी की बात आई, तो भाइयों ने साफ़ इनकार कर दिया.
उनका कहना था कि आदिवासियों में बेटियों को संपत्ति में हिस्सा देने की परंपरा नहीं है.
धइया के बेटे-बेटियों ने अपनी माँ के हक़ के लिए अदालत में गुहार लगाई. सूरजपुर से होते हुए यह मामला दिल्ली तक पहुँचा.
देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया कि धइया को भी पिता की संपत्ति में हक़ मिलना ही चाहिए. हालाँकि, धइया अब जीवित नहीं हैं.
दूसरी ओर, आदिवासी संगठन इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं.
धइया के बेटे रामचरण सिंह बीबीसी हिन्दी से कहते हैं, "मुझे नहीं पता कि नाना की संपत्ति में हक़ मिलेगा या नहीं. मुझे यह भी नहीं पता कि आदिवासी समाज मेरे हक़ की लड़ाई के ख़िलाफ़ है. मुझे इतना पता है कि मैंने अपनी माँ के हक़ के लिए 1993 में क़ानूनी लड़ाई की शुरुआत की थी. मैंने 32 साल लड़ाई लड़ी. अंततः लड़ाई में जीत हासिल की."
- तीजन बाई: पंडवानी के शिखर पर पहुंचने वाली पहली गायिका को क्या-क्या सहना पड़ा
- महाराष्ट्र में 'लाडली बहन योजना' के तहत पुरुषों को पैसे मिलने का क्या है मामला
- कांवड़ यात्रा की वो बातें जो कर रही हैं महिला कांवड़ियों को परेशान
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में आदिवासियों की कुल आबादी 10 करोड़ 42 लाख के आसपास है.
वे देश की कुल आबादी का 8.6 फ़ीसदी हैं. देश के अधिकांश आदिवासी समुदायों में बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं दिया जाता.
माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ के सूरजपुर की एक मामूली-सी संपत्ति से जुड़ा अदालत का फ़ैसला, 730 अलग-अलग समुदायों वाली आदिवासी आबादी पर असर डालेगा.
इस कहानी को संक्षेप में समझें, तो सूरजपुर के मानपूर गाँव के भज्जू गौड़ उर्फ़ भजन शोरी के पाँच बेटे और एक बेटी धइया थी. धइया की शादी रगम साई से हुई. शादी के बाद वह ससुराल में ही रहने लगे.
जब संपत्ति के बँटवारे की बात आई, तो भज्जू गौड़ ने अपनी ज़मीन बेटों में बाँट दी. धइया के बेटों ने दावा किया कि संपत्ति में उनकी माँ को भी बराबर का हक़ मिलना चाहिए.
धइया के बेटे रामचरण कहते हैं, "हमें कहा गया कि आदिवासियों में बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक़ नहीं मिलता. हमने आवाज़ उठाई, तो आदिवासी रीति-रिवाजों का हवाला दे कर हमें चुप करा दिया गया. इसके बाद हमने सूरजपुर की अदालत में साल 1993 में मामला दायर किया."
धइया के नौ बेटे-बेटियों की इस याचिका को पहले सूरजपुर की स्थानीय अदालत ने और फिर बाद में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने आदिवासी परंपराओं का हवाला देते हुए ख़ारिज कर दिया.
इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा. यहाँ पिछले महीने न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया.
- मध्य प्रदेश: दो लड़कियों की हत्या से सवालों के घेरे में महिलाओं की सुरक्षा
- ज़ोहरान ममदानी की पत्नी रमा दुवाजी, जो अपनी शख़्सियत के कारण चर्चा में हैं और निशाने पर भी
- झारखंड: खूंटी की 11 छात्राओं ने पास की नीट परीक्षा, अब फ़ीस बनी सबसे बड़ी चुनौती
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है.
अदालत ने कहा कि हालाँकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि आदिवासी महिलाओं को स्वतः ही विरासत के अधिकार से बाहर कर दिया जाए.
यह देखना आवश्यक है कि क्या कोई ऐसा प्रचलित रिवाज है, जो आदिवासी महिला सदस्यों को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित करता है?
अदालत ने कहा कि इस मामले में कोई भी पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि ऐसा कोई रीति-रिवाज अस्तित्व में है, जो महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर करता हो.
अदालत का कहना था कि अगर ऐसा कोई रिवाज हो भी, तब भी उसे समय के साथ विकसित होना चाहिए.
न्यायालय ने कहा, "रिवाज भी, क़ानून की तरह स्थिर नहीं रह सकते और किसी को भी इनकी आड़ लेकर दूसरों को उनके वैधानिक अधिकारों से वंचित करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती."
न्यायालय ने यह भी कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.
यह सभी व्यक्तियों को क़ानून के सामने बराबरी का अधिकार देता है. सिर्फ़ पुरुष वारिसों को ही संपत्ति का अधिकारी मानने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फ़ैसले पर भी टिप्पणी की.
उसने कहा कि जब कोई ख़ास जनजातीय रिवाज या संहिताबद्ध क़ानून महिलाओं के उत्तराधिकार को नकारता हो, तब कोर्ट को 'न्याय, समानता और सदविवेक' के सिद्धांतों को अपनाना चाहिए.
अदालत ने कहा, "किसी महिला या उसके उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करना सिर्फ़ लिंग आधारित विभाजन और भेदभाव को और गहरा करता है. इसे ख़त्म करना क़ानून का मक़सद होना चाहिए."
अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि केवल पुरुषों को उनके पूर्वजों की संपत्ति में उत्तराधिकार देने और महिलाओं को नहीं देने के पीछे कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''अनुच्छेद 15(1) कहता है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, वंश, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ मिलकर संविधान की उस सामूहिक भावना को दर्शाता है, जो महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध है."
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रियंका शुक्ला बताती हैं कि हिंदू उत्तराधिकार क़ानून, हिंदू महिलाओं को पिता की अर्जित संपत्ति में बराबर का हक़ देता है.
हिंदू महिलाओं को साल 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के तहत पैतृक संपत्ति में हक़ मिला था. हालाँकि, इस अधिनियम से आदिवासी समुदाय को बाहर रखा गया है.
प्रियंका शुक्ला कहती हैं, ''यही कारण है कि संपत्ति के मामले में आज भी आदिवासी समाज में पारंपरिक क़ानून लागू है. इसके तहत बेटी को पैतृक संपत्ति में हक़ नहीं मिलता."
- थिएटर मेरी ज़िंदगी है: नादिरा बब्बर की ज़िंदगी, लेखन और अभिनय का सफ़र
- बुकर जीतने वालीं बानू मुश्ताक़ की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी
- महिलाओं की पसंद का खाना और उनकी थाली की चर्चा क्यों नहीं होती?

हालाँकि, अब बड़ा सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से सदियों पुरानी आदिवासी परंपरा टूटेगी?
क्या आदिवासी बेटियों के लिए भी पैतृक ज़मीन-जायदाद में हिस्से का रास्ता खुलेगा?
याचिकाकर्ता रामचरण के बेटे सदन टेकाम मानते हैं कि इस फ़ैसले से आदिवासी समाज में बड़ा बदलाव आएगा.
सदन कहते हैं, "हम इस फ़ैसले से बहुत ख़ुश हैं. हमने तो केवल इतना कहा था कि जिस संपत्ति पर हमारी दादी रहती थीं, वह उन्हें मिलना चाहिए. परिवार वाले उसके लिए भी तैयार नहीं हुए. अब अदालत का फ़ैसला हमारे हक़ में आया है कि बेटियों को भी हक़ मिलना चाहिए."
दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज का एक हिस्सा इस फ़ैसले से नाराज़ और चिंतित है.
बस्तर में सर्व आदिवासी समाज के प्रकाश ठाकुर ने अपने एक लिखित बयान में कहा, "इस फ़ैसले से आने वाले समय में पूरे देश में घर-घर में गृह युद्ध छिड़ने की प्रबल आशंका को नकारा नहीं जा सकता. इसलिए माननीय सुप्रीम कोर्ट को अपने इस फ़ैसले पर दोबारा विचार करना चाहिए."
प्रकाश ठाकुर बताते हैं कि गोंड आदिवासी समाज में महिलाओं को अपने पति की संपत्ति पर 100 फ़ीसदी अधिकार होता है.
पिता की संपत्ति में बेटी को परंपरागत रूप से हिस्सा नहीं दिया जाता.
कुल वधू प्रथा के अनुसार, बेटी दूसरे कुल की सदस्य मानी जाती है. यही वजह है कि जहाँ उसका ब्याह होता है, वहाँ की संपत्ति में उसे 'मालकिन' का दर्जा हासिल होता है.
उनका कहना है कि इस मामले में आदिवासी समाज वकीलों से चर्चा कर रहा है.
वहीं, इंदिरा गांधी और नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके आदिवासी नेता अरविंद नेताम का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में ठीक से पक्ष नहीं रखा गया.
वे इस फ़ैसले को आदिवासियों के 'पारंपरिक क़ानून' के उलट बताते हैं. वह कहते हैं कि इस फ़ैसले से आदिवासी परिवार में बिखराव की प्रक्रिया शुरू होगी.
वह बताते हैं कि आदिवासी ज़मीन किसी आदिवासी को ही बेची जा सकती है. उनका आरोप है कि यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में ग़ैर-आदिवासी, आदिवासी लड़कियों से ब्याह कर रहे हैं.
उनमें से ज़्यादातर का मक़सद सिर्फ़ इतना भर रहता है कि आदिवासी ज़मीन ख़रीदी जा सके.
अरविंद नेताम कहते हैं, "आदिवासी समाज में महिलाओं को बराबरी का अधिकार रहा है. सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले के बाद आदिवासी समाज की पूरी संरचना चरमरा जाएगी. ग़ैर-आदिवासी, संपत्ति के लोभ में आदिवासी लड़कियों से ब्याह करना शुरू करेंगे. इस फ़ैसले के दूरगामी परिणाम की कल्पना नहीं की जा सकती."
- मिस वर्ल्ड विवाद: 'मुझे ये सोचने पर मजबूर किया गया कि मैं वेश्या हूं'
- उत्तराखंड: नैनीताल में हिंसा के बीच वायरल हो रही युवती के वीडियो से जुड़ा पूरा मामला क्या है?
- विवाह के लिए साथी की ऑनलाइन तलाश, धोखाधड़ी से बचने के लिए याद रखें ये 10 बातें
इन सबके बीच, कई आदिवासी युवा और महिलाएँ सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से ख़ुश हैं.
अभिनव शोरी बस्तर के युवा आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वह ग़ैर आदिवासियों की ओर से आदिवासी संपत्ति पर क़ब्ज़ा करने की आशंका का जवाब देते हैं.
उनका कहना है कि किसी संभावित नुक़सान के डर से किसी को उसके मूल अधिकार से वंचित करना संविधान सम्मत नहीं है.
अभिनव कहते हैं, "इस विषय पर कोई आधिकारिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है कि कितनी आदिवासी महिलाओं की भूमि ग़ैर-आदिवासियों के पास चली गई है. ऐसी हालत में, आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भूमि हस्तांतरण विनियमन की तर्ज पर क़ानून में संशोधन ज़रूरी है. वहाँ आदिवासी से ग़ैर-आदिवासी को ज़मीन का हस्तांतरण शून्य माना जाता है. आदिवासी ज़मीन केवल आदिवासी को ही बेची जा सकती है."
कांकेर की आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता वंदना कश्यप का कहना है कि समय के साथ बदलाव आना ही चाहिए. बेटियों को भी उनका हक़ मिलना ही चाहिए.
वंदना कहती हैं, "आदिवासी समाज तेज़ी से बदला है. खान-पान से लेकर पहनावा-ओढ़ावा तक. सारे बदलाव हमने स्वीकार किए हैं. ऐसे में परंपरा के नाम पर संपत्ति के अधिकार से बेटियों को वंचित नहीं किया जा सकता है. इस बदलाव का भी हमें खुल कर स्वागत करना चाहिए."
वहीं, बरसों से छत्तीसगढ़ में महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता इंदू नेताम इसे क्रांतिकारी और ज़रूरी फ़ैसला मानती हैं.
इंदू नेताम ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "जो हक़ देश की दूसरी महिलाओं को हासिल हैं, उनसे आदिवासी महिलाओं को क्यों वंचित रखा जाना चाहिए? यह आदिवासी महिलाओं की ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव लाने वाला बड़ा फ़ैसला है."
पैतृक विरासत की ज़मीन पर आदिवासी लड़कियों की राह बनाता सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फ़ैसला, धरातल पर किस हद तक उतर पाएगा, अभी कहना मुश्किल है.
हाँ, इतना तय है कि इस फ़ैसले ने एक बड़ी बहस शुरू कर दी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
- पढ़ाई और नौकरी की पाबंदी के बाद कालीनों में सपने बुनती अफ़ग़ान लड़कियां
- कुमुदिनी लाखिया: कथक को नई लय देने वाली मशहूर नृत्यांगना
- बुलडोज़र एक्शन के बीच किताबें लेकर भागती बच्ची ने उस दिन के बारे में क्या बताया?
You may also like
विधवा के प्यार में अंधा हुआ दो बच्चों का बाप.ˈ शादी से मना किया तो बीच सड़क पर तेजाब से नहलाया बूंद-बूंद ने पिघलाया पूरा जिस्म
ब्रिटिश सरकार अपने गुप्तचरों के जरिए संघ की हर एक जानकारी रखती थी : मोहन भागवत
विश्व ह्यूमनॉइड रोबोट गेम्स में नवाचार के क्षेत्र में सफलता मिली
'तन समर्पित, मन समर्पित' आरएसएस को बदनाम करने वालों को जवाब है : इंद्रेश कुमार
पेइचिंग में धूमधाम से मनाया गया स्वतंत्रता दिवस