आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ रहा है.
इस तकनीक को काम करने के लिए बड़ी मात्रा में बिजली की ज़रूरत होती है और डेटा सेंटर्स को ठंडा रखने के लिए लगातार पानी का इस्तेमाल किया जाता है.
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़, दुनिया की आधी आबादी पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रही है.
जलवायु परिवर्तन और पानी की बढ़ती मांग की वजह से आने वाले समय में यह संकट और गहरा सकता है.
ऐसे में क्या एआई की इतनी तेज़ रफ़्तार पानी की इस कमी को और बढ़ा देगी?
एआई कितना पानी इस्तेमाल करता है?ओपनएआई के चीफ़ एग़्जीक्यूटिव ऑफ़िसर (सीईओ) सैम ऑल्टमैन का कहना है कि चैटजीपीटी से किए गए एक सवाल का जवाब पाने में लगभग एक चम्मच के पंद्रहवें हिस्से जितना पानी लगता है.
लेकिन अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया और टेक्सस में की गई एक स्टडी में पाया गया कि कंपनी के जीपीटी‑3 मॉडल से 10 से 50 सवालों के जवाब देने में लगभग आधा लीटर पानी लगता है. यानी हर जवाब के लिए क़रीब 2 से 10 चम्मच पानी की खपत होती है.
पानी के इस्तेमाल का अनुमान कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे किस तरह का सवाल है, जवाब कितना लंबा है, जवाब कहां प्रोसेस हो रहा है और कैलकुलेशन में किन चीज़ों को शामिल किया गया है.
अमेरिकी शोधकर्ताओं की इस स्टडी में जो 500 मिलीलीटर का अनुमान लगाया गया है, उसमें उस पानी को भी गिना गया है जो बिजली बनाने में लगता है, जैसे कोयला, गैस या परमाणु ऊर्जा केंद्रों में टर्बाइन चलाने के लिए भाप तैयार करने में.
सैम ऑल्टमैन के बताए गए आंकड़े में शायद इसे शामिल नहीं किया गया है. बीबीसी ने जब ओपनएआई से इस बारे में पूछा तो कंपनी ने अपने हिसाब लगाने का तरीक़ा नहीं बताया.
ओपनएआई का कहना है कि चैटजीपीटी हर दिन एक अरब सवालों के जवाब देता है और चैटजीपीटी अकेला एआई बॉट नहीं है.
इस अमेरिकी स्टडी का अनुमान है कि 2027 तक एआई इंडस्ट्री हर साल डेनमार्क जैसे पूरे देश के मुक़ाबले चार से छह गुना ज़्यादा पानी इस्तेमाल करेगी.
इस स्टडी के एक लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, रिवरसाइड के प्रोफ़ेसर शाओलेई रेन का कहना है, "जितना ज़्यादा हम एआई का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही ज़्यादा पानी खर्च होगा."
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हम जो भी ऑनलाइन काम करते हैं, चाहे ईमेल भेजना हो, वीडियो देखना हो या फिर डीपफेक तैयार करना, ये सब बड़े-बड़े डेटा सेंटर्स में मौजूद हज़ारों कंप्यूटर सर्वर प्रोसेस करते हैं. इनमें से कुछ डेटा सेंटर्स कई फ़ुटबॉल मैदानों जितने बड़े होते हैं.
इन सर्वर्स में जब लगातार बिजली चलती है तो ये बहुत गर्म हो जाते हैं. इन्हें ठंडा रखने के लिए पानी, ज़्यादातर साफ़ ताज़ा पानी बहुत अहम होता है. ठंडा करने के तरीक़े अलग-अलग होते हैं, लेकिन कुछ सिस्टम में इस्तेमाल किए गए पानी का 80 फ़ीसद तक हिस्सा भाप बनकर हवा में उड़ जाता है.
एआई वाले काम, जैसे तस्वीरें बनाना, वीडियो बनाना या कॉम्प्लेक्स कंटेंट तैयार करना, सामान्य ऑनलाइन कामों (जैसे ऑनलाइन शॉपिंग या सर्च करना) के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा कंप्यूटिंग पावर मांगते हैं. इस वजह से इनमें बिजली की खपत भी ज़्यादा होती है.
कितना फ़र्क़ पड़ता है, इसका सही आंकड़ा निकालना मुश्किल है. लेकिन इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि चैटजीपीटी से किया गया एक सवाल गूगल पर किए गए एक सर्च के मुक़ाबले लगभग 10 गुना ज़्यादा बिजली खर्च करता है.
और जब बिजली ज़्यादा लगेगी तो गर्मी भी ज़्यादा पैदा होगी, इस वजह से और ज़्यादा ठंडा करने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है.
एआई के लिए पानी का इस्तेमाल कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है?बड़ी एआई टेक कंपनियां यह नहीं बतातीं कि उनकी एआई से जुड़ी गतिविधियों में कितना पानी लगता है, लेकिन उनके कुल पानी के इस्तेमाल के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं.
गूगल, मेटा और माइक्रोसॉफ़्ट, जो ओपनएआई में बड़े निवेशक और शेयरहोल्डर हैं, इन तीनों की एंवायरमेंटल रिपोर्ट के मुताबिक़ 2020 के बाद से इनके पानी के इस्तेमाल में तेज़ बढ़ोतरी हुई है. इस दौरान गूगल का पानी इस्तेमाल लगभग दोगुना हो गया है. अमेज़न वेब सर्विसेज़ (एडब्ल्यूएस) ने कोई आंकड़ा नहीं दिया है.
जैसे-जैसे एआई की मांग बढ़ेगी, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि 2030 तक डेटा सेंटर्स का पानी इस्तेमाल लगभग दोगुना हो जाएगा. इसमें वह पानी भी शामिल है जो बिजली बनाने और कंप्यूटर चिप बनाने की प्रक्रिया में लगता है.
गूगल का कहना है कि उसके डेटा सेंटर्स ने 2024 में पानी के स्रोतों से 37 अरब लीटर पानी लिया, जिसमें से 29 अरब लीटर पानी "खपत" हो गया यानी ज़्यादातर हिस्सा भाप बनकर उड़ गया.
क्या यह बहुत ज़्यादा है? यह इस पर निर्भर करता है कि आप किससे तुलना करते हैं. संयुक्त राष्ट्र के हिसाब से इतनी मात्रा का पानी 16 लाख लोगों की एक साल तक रोज़ाना 50 लीटर पीने और इस्तेमाल करने की ज़रूरत पूरी कर सकता है. या फिर गूगल के मुताबिक़, इतना पानी अमेरिका के दक्षिण-पश्चिमी इलाक़ों में 51 गोल्फ़ कोर्स को एक साल तक सींचने के बराबर है.
सूखे वाले इलाक़ों में डेटा सेंटर्स क्यों बनाए जाते हैं?पिछले कुछ सालों में दुनिया के कई सूखा प्रभावित इलाक़ों में, जैसे यूरोप, लैटिन अमेरिका और अमेरिका के एरिज़ोना राज्य में, डेटा सेंटर्स का विरोध लगातार सुर्ख़ियों में रहा है.
स्पेन में "योर क्लाउड इज़ ड्राइंग अप माय रिवर (तुम्हारा क्लाउड मेरी नदी सुखा रहा है)" नाम का एक पर्यावरण समूह बना है, जो डेटा सेंटर्स के बढ़ते विस्तार का विरोध कर रहा है.
चिली और उरुग्वे, जहां इस समय भीषण सूखा पड़ा हुआ है, वहां पानी के इस्तेमाल को लेकर हुए विरोध के बाद गूगल ने अपने डेटा सेंटर्स की योजनाओं को रोक दिया है या उनमें बदलाव किया है.
एनटीटी डेटा के दुनिया भर में 150 से ज़्यादा डेटा सेंटर्स हैं. कंपनी के सीईओ अभिजीत दुबे कहते हैं कि "गर्म और सूखे इलाक़ों में डेटा सेंटर्स बनाने की दिलचस्पी बढ़ रही है."
वह बताते हैं कि ज़मीन की उपलब्धता, बिजली का ढांचा, सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत और आसान नियम, इन इलाक़ों को कंपनियों के लिए आकर्षक बनाते हैं.
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि जहां नमी ज़्यादा होती है, वहां जंग लगने की समस्या बढ़ जाती है और इमारत को ठंडा रखने में और ज़्यादा ऊर्जा लगती है. इस कारण सूखे इलाक़ों में डेटा सेंटर्स लगाने के फ़ायदे माने जाते हैं.
गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट और मेटा अपनी ताज़ा एंवायरमेंटल रिपोर्ट्स में स्वीकार करते हैं कि वे सूखे इलाक़ों से पानी ले रहे हैं.
कंपनियों की ताज़ा एंवायरमेंटल रिपोर्ट्स के मुताबिक़, गूगल का कहना है कि वह जितना पानी लेता है, उसमें 14 फ़ीसद ऐसे इलाक़ों से आता है जहां पानी की कमी का "ज़्यादा" ख़तरा है और 14 फ़ीसद ऐसे इलाक़ों से जहां "मध्यम" ख़तरा है.
माइक्रोसॉफ़्ट का कहना है कि उसका 46 फ़ीसद पानी ऐसे इलाक़ों से आता है जहां "पानी पर दबाव" है.
वहीं मेटा का कहना है कि उसका 26 फ़ीसद पानी ऐसे इलाक़ों से आता है जहां पानी की "ज़्यादा" या "बेहद ज़्यादा" कमी का दबाव है. एडब्ल्यूएस (अमेज़न वेब सर्विसेज़) ने कोई आंकड़ा नहीं दिया है.
प्रोफ़ेसर रेन कहते हैं कि ड्राई या एयर कूलिंग सिस्टम का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इनसे पानी की जगह ज़्यादा बिजली खर्च होती है.
माइक्रोसॉफ़्ट, मेटा और अमेज़न का कहना है कि वे "क्लोज़्ड लूप" सिस्टम तैयार कर रहे हैं, जिसमें पानी या कोई और तरल लगातार सिस्टम में घूमता रहता है और उसे बार-बार उड़ाना या बदलना नहीं पड़ता.
अभिजीत दुबे का मानना है कि भविष्य में सूखे इलाक़ों में इस तरह के सिस्टम की ज़रूरत ज़्यादा पड़ेगी, लेकिन उनका कहना है कि इंडस्ट्री अभी इन्हें अपनाने के "बहुत शुरुआती" दौर में है.
ऐसी योजनाएं भी चल रही हैं या बनाई जा रही हैं, जिनमें डेटा सेंटर्स से निकलने वाली गर्मी को आसपास के घरों में इस्तेमाल किया जाता है. जर्मनी, फ़िनलैंड और डेनमार्क जैसे देशों में ये काम हो रहा है.
विशेषज्ञ कहते हैं कि कंपनियां आम तौर पर साफ़ और ताज़े पानी का इस्तेमाल करना पसंद करती हैं, वही पानी जो पीने के लिए इस्तेमाल होता है क्योंकि इससे बैक्टीरिया और जंग लगने का ख़तरा कम होता है.
हालांकि कुछ कंपनियां अब समुद्र के पानी या फैक्ट्री का गंदा पानी (जो पीने लायक़ नहीं होता) इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही हैं.
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एआई का इस्तेमाल पहले से ही धरती पर दबाव कम करने में मदद के लिए किया जा रहा है. जैसे, ख़तरनाक ग्रीनहाउस गैस मीथेन के रिसाव को ढूंढने में या ट्रैफ़िक को ऐसे रास्तों पर मोड़ने में, जिससे ईंधन कम खर्च हो.
संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ़ में इनोवेशन ऑफ़िस के ग्लोबल डायरेक्टर थॉमस डेविन कहते हैं, "एआई दुनिया भर के बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और शायद जलवायु परिवर्तन जैसे मामलों में बड़ा बदलाव ला सकता है."

लेकिन वह यह भी कहते हैं कि वह कंपनियों के बीच इस बात की होड़ देखना पसंद करेंगे कि कौन ज़्यादा "कारगर और पारदर्शी" तरीके से काम करता है, न कि सिर्फ़ इस होड़ में कि "सबसे ताक़तवर और सबसे एडवांस मॉडल कौन बना रहा है."
वह यह भी चाहते हैं कि कंपनियां अपने मॉडल ओपन सोर्स करें, यानी उन्हें सबके लिए उपलब्ध कराएं ताकि कोई भी उन्हें इस्तेमाल कर सके और अपनी ज़रूरत के हिसाब से बदल सके.
थॉमस डेविन का कहना है कि अगर कंपनियां अपने मॉडल सबके लिए खोल दें तो बड़े-बड़े मॉडल को ट्रेन करने की ज़रूरत कम हो जाएगी. ट्रेनिंग का मतलब है ढेर सारे डेटा को सिस्टम में डालना और फिर उसी आधार पर जवाब तैयार करना और इस प्रक्रिया में भारी बिजली और पानी लगता है.
लेकिन लोरेना जौमे-पलासी, जो एक इंडिपेंडेंट रिसर्चर हैं और कई यूरोपीय सरकारों, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं को सलाह दे चुकी हैं, और एथिकल टेक सोसाइटी नाम का नेटवर्क चलाती हैं, वह कहती हैं कि "एआई का जितना तेज़ विस्तार हो रहा है, उसे पर्यावरण के लिहाज़ से टिकाऊ बनाना नामुमकिन है."
उनका कहना है, "हम इसे कारगर बना सकते हैं, लेकिन जैसे-जैसे इसे और कारगर बनाएंगे, इसका इस्तेमाल और बढ़ेगा."
वह कहती हैं, "लंबी अवधि में हमारे पास इतने रॉ मैटेरियल्स नहीं हैं कि इस होड़ को, जिसमें बड़े और तेज़ एआई सिस्टम बनाने की कोशिश हो रही है, लगातार जारी रख सकें."
टेक कंपनियां क्या कह रही हैं?गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट, एडब्ल्यूएस और मेटा का कहना है कि वे हर जगह स्थानीय हालात को देखते हुए कूलिंग टेक्नोलॉजी का चुनाव करते हैं.
इन सभी कंपनियों ने 2030 तक "वॉटर पॉज़िटिव" बनने का लक्ष्य रखा है. इसका मतलब है कि औसतन वे जितना पानी इस्तेमाल करेंगी, उससे ज़्यादा पानी वापस लौटाने की कोशिश करेंगी.
इस मक़सद के लिए ये कंपनियां उन इलाक़ों में पानी बचाने और दोबारा भरने वाले प्रोजेक्ट चलाती हैं जहां उनके डेटा सेंटर्स हैं जैसे जंगल या वेटलैंड को फिर से तैयार करना, पाइपलाइन में लीकेज ढूंढना या सिंचाई के बेहतर तरीक़े अपनाना.
एडब्ल्यूएस का कहना है कि वह अपने लक्ष्य की 41 फ़ीसद दूरी तय कर चुका है, माइक्रोसॉफ़्ट का कहना है कि वह "सही दिशा में आगे बढ़ रहा है", और गूगल और मेटा ने जो आंकड़े जारी किए हैं उनमें पानी को वापस भरने के काम में तेज़ी दिखाई देती है. लेकिन यूनिसेफ़ के थॉमस डेविन का कहना है कि कुल मिलाकर अभी इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए "लंबा रास्ता तय करना बाकी है."
ओपनएआई का कहना है कि वह पानी और ऊर्जा की बचत पर "कड़ी मेहनत" कर रहा है और यह भी कहता है कि "कंप्यूटिंग पावर का सबसे सोच-समझ कर इस्तेमाल करना बेहद ज़रूरी है."
लेकिन प्रोफ़ेसर रेन कहते हैं कि पानी के इस्तेमाल पर कंपनियों की रिपोर्टिंग और ज़्यादा पारदर्शी और एक जैसी होनी चाहिए. उनका कहना है, "अगर हम इसे माप ही नहीं पाएंगे, तो इसे संभाल भी नहीं पाएंगे."
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