जब पूरा देश क्रिकेट के रंग में रंगा था, तब उत्तर प्रदेश के इस युवा ने अपनी नजर सिर्फ एक लक्ष्य 'निशाना लगाने' पर टिका रखी थी। सत्यदेव का जन्म उस भारत में हुआ था जहां खेल का मतलब अक्सर सिर्फ क्रिकेट होता था। गांव की गलियों में क्रिकेट के बल्ले गूंजते थे, लेकिन सत्यदेव की आंखों में कुछ और ही चमक थी। उनके लिए खेल का मैदान हरी घास का नहीं, बल्कि एक ऐसी जगह थी जहां हवा की दिशा, दिल की धड़कन और हाथ की स्थिरता तय करती थी कि वे विजयी होंगे या नहीं।
शुरुआती दिनों में उनके पास न तो कोई अत्याधुनिक उपकरण थे और न ही कोई हाई-फाई कोचिंग। जिस तरह कोई किसान अपनी जमीन को सींचता है, उसी तरह सत्यदेव ने भी अपनी कला को सींचा। शुरुआती दौर में उन्हें न जाने कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। संसाधन कम थे, लोगों का प्रोत्साहन भी सीमित था, लेकिन उनके भीतर एक आग जल रही थी। यह आग थी खुद को साबित करने की, अपने सपने को एक पहचान देने की।
उन्होंने लकड़ी के धनुष और साधारण तीरों से अभ्यास शुरू किया। हर तीर जो निशाने से चूकता था, वह उन्हें और मजबूत बनाता था। वे सिर्फ तीर चलाना नहीं सीख रहे थे, बल्कि अपने मन को साधना भी सीख रहे थे। धीरे-धीरे, उनकी मेहनत रंग लाने लगी। स्थानीय प्रतियोगिताओं में उनका प्रदर्शन लगातार बेहतर होता गया। उनकी अचूकता और स्थिरता ने जल्द ही कोचों और चयनकर्ताओं का ध्यान खींचा। उन्हें राष्ट्रीय स्तर के कैंप में बुलाया गया, जहां उनकी प्रतिभा को एक सही दिशा मिली।
राष्ट्रीय शिविरों में आने के बाद, सत्यदेव ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रशिक्षण लेना शुरू किया। उन्होंने समझा कि सिर्फ प्रतिभा काफी नहीं है, उसे सही तकनीक, मानसिक मजबूती और निरंतर अभ्यास से निखारना पड़ता है। उन्होंने घंटों तक ध्यान लगाया, अपनी सांसों को नियंत्रित करना सीखा और हर एक तीर को अपने मन की शांति का प्रतीक बना लिया। उनका प्रदर्शन लगातार सुधरता गया और जल्द ही वे राष्ट्रीय टीम का एक अहम हिस्सा बन गए।
प्रसाद 2004 के ओलंपिक में भारतीय पुरुष तीरंदाजी टीम के 11वें वें स्थान पर थे। उन्होंने मलेशिया में आयोजित एशियाई टीम चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता। उन्होंने रोम विश्व चैम्पियनशिप 1999, बीजिंग विश्व चैम्पियनशिप 2001 और न्यूयॉर्क विश्व चैम्पियनशिप 2003 में भाग लिया।
सत्यदेव प्रसाद के करियर का सबसे बड़ा और निर्णायक मोड़ 2004 के एथेंस ओलंपिक में आया। यह वह मंच था जहां हर खिलाड़ी अपने जीवन के सबसे बड़े सपने को पूरा करने आता है। भारतीय तीरंदाजी के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि तब तक भारत ने इस खेल में कोई खास उपलब्धि हासिल नहीं की थी।
प्रसाद 2004 के ओलंपिक में भारतीय पुरुष तीरंदाजी टीम के 11वें वें स्थान पर थे। उन्होंने मलेशिया में आयोजित एशियाई टीम चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता। उन्होंने रोम विश्व चैम्पियनशिप 1999, बीजिंग विश्व चैम्पियनशिप 2001 और न्यूयॉर्क विश्व चैम्पियनशिप 2003 में भाग लिया।
Also Read: LIVE Cricket Scoreउनका यह प्रदर्शन हार-जीत से कहीं बढ़कर था। उनका करियर शीर्ष पर था, लेकिन वह हमेशा जमीन से जुड़े रहे। उनका योगदान सिर्फ पदक जीतने तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने युवा खिलाड़ियों को सलाह और प्रेरणा देकर एक मजबूत नींव तैयार की। उन्होंने साल 2017, 2018, 2019, 2024 में भारतीय टीम के मैनेजर की भूमिका निभाई है। साल 2022 में वह टीम के कोच भी रह चुके हैं।
Article Source: IANSYou may also like
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