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संतान की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए माताएं करती हैं जितिया व्रत, जानें कथा और महत्व

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New Delhi, 14 सितंबर . हिंदू धर्म में जितिया व्रत को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है. यह व्रत न सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि मां और संतान के रिश्ते में समर्पण और तपस्या की भावना को भी दर्शाता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के कई हिस्सों में इसे ममता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखा जाता है. इसे जीवित्पुत्रिका या जीउतिया व्रत के नाम से भी जाना जाता है.

इस दिन माताएं संतान की लंबी उम्र, उत्तम स्वास्थ्य और उज्ज्वल भविष्य के लिए निर्जला उपवास करती हैं.

हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को यह व्रत किया जाता है. इस बार यह व्रत Sunday सुबह 7:23 बजे शुरू होकर Monday तड़के 3:06 बजे तक रहेगा. खास बात यह है कि इस बार जितिया व्रत का संयोग रोहिणी नक्षत्र, सिद्धि योग और रवि योग के साथ बना है, जो इसे और अधिक फलदायी बनाता है.

चंद्रमा वृषभ राशि में दिनभर स्थित रहेंगे और चंद्रोदय रात्रि 11:18 बजे होगा, जिससे रात्रिकालीन पूजा का विशेष महत्व बढ़ जाता है.

व्रत में महिलाएं पूरे दिन बिना अन्न-जल ग्रहण किए रहती हैं और शाम को मिट्टी या गोबर से बनाए गए जीमूतवाहन देवता और जितिया माता की पूजा करती हैं. जीमूतवाहन वही पौराणिक पात्र हैं, जिन्होंने एक नाग बालक की रक्षा के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी. पूजा के साथ जितिया व्रत कथा का पाठ किया जाता है, जो इस व्रत में अनिवार्य होता है.

Monday को नवमी तिथि में व्रत का पारण किया जाएगा. इस व्रत में पारंपरिक रूप से नोनी साग, मडुआ रोटी और पंचसब्जी जैसे व्यंजन बनाए जाते हैं. व्रती महिलाएं पूजा और कथा के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं.

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जंगल में रहने वाली चील और सियारिन ने यह व्रत रखने का संकल्प लिया. चील ने पूरे नियमों से व्रत निभाया, लेकिन सियारिन भूख से तंग आकर रात को मांस खा बैठी.

अगले जन्म में चील एक मंत्री की बेटी बनी और सियारिन राजकुमारी, परंतु चील के बच्चे स्वस्थ और दीर्घायु हुए, जबकि सियारिन की संतानें जन्म लेते ही मर जाती थीं. जब सियारिन को अपने पूर्वजन्म की गलती का अहसास हुआ, तो उसने फिर से पूरी निष्ठा से जितिया व्रत किया और उसे भी स्वस्थ संतान का सुख मिला.

पीके/एबीएम

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