पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को लेकर कांग्रेस जरूर कुछ नया स्टैंड लेकर बिहार के चुनावी समर में उतरी थी। यह और बात है कि न तो बिहार की चुनावी रणभूमि और न ही बिहार का जनमानस इस बदलाव के प्रति आग्रही था। फिर भी कांग्रेस की जिस युवा टीम को इस परिवर्तन की लहर की वास्तविकता जानने और समझने की जिम्मेदारी दी उसका निर्वहन नहीं हो पाया। और धीरे धीरे कांग्रेस कब बैकफुट पर चली आई इसका एहसास भी अंत में हुआ। चलिए जानते है कि कांग्रेस क्या चाहती थी और क्या मिला ?
चौबे गए छब्बे बनने, दुबे बन कर लौटे
एक कहावत है कि चौबे गए छब्बे बनने ,दुबे बन कर लौटे। कांग्रेस पर यह मुहावरा बिलकुल फिट बैठता है। कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु और एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने तो चली बहुत दूर से थी। इन युवा नेताओं ने चुनाव से काफी पहले नौकरी दो पलायन रोको की जो यात्रा बिहार से निकाली उस कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा सदाकत आश्रम में तैयार की गई। राजद सुप्रीमो लालू यादव को इन लोगों ने बताया भी नहीं। सीटों को चिह्नित करने की बात आई तो सदाकत आश्रम से ही करीब 140 सीटें चिह्नित कर राजद सुप्रीमो लालू यादव तक भिजवा दी।
अब चुनाव लड़ने की बात और सीटों की हिस्सेदारी पर जब बात हुई तो 71 सीटों की ऐसी सूची भेज दी जिनमें राजद की कुछ सीटिंग भी थी। यह फैसला भी सदाकत आश्रम से ही हुआ। फिर महागठबंधन की संयुक्त बैठक में इस बात पर चर्चा हुई कि कई और साथी दल जुड़े हैं तो राजद और कांग्रेस अपनी सीटों की संख्या कम करेगी। इस संदर्भ में भी जब 61 सीटें की सूची महागठबंधन के प्लेटफार्म पर रखा गया तो कांग्रेस ने इस सूची में वैसे कई सीटों पर दावा छोड़ दिया जहां कांग्रेस ज्यादा मतों से हारी थी। यह निर्णय भी सदाकत आश्रम में की गई। दरअसल ,कांग्रेस ऐसा कर राजद की बी टीम होने के लांक्षण से मुक्ति की लड़ाई लड़ रही थी और कांग्रेस आलाकमान बिहार में कांग्रेस का भविष्य। कांग्रेस अपनी विरासत यानी मुस्लिम, दलित और सवर्ण मतों के साथ अपनी जड़ तलाश रही थी।
बैक फूट पर क्यों गई कांग्रेस
अब तक बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु और एनएसयूआई के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने कांग्रेस को उसकी जमीन पर खड़ा करने की कवायद की। राहुल गांधी ने भी अधिकार यात्रा के दौरान प्रदेश कांग्रेस की ताकत समझने की कोशिश की। लेकिन कांग्रेस रणनीतिकारों की ओर से इंटरनल सर्वे में राजद की वैशाखी छोड़ने की बात नहीं बताई गई।
उनका आधार वोट मुस्लिम, दलित और सवर्ण संपूर्णता में साथ नहीं है। मुस्लिम तो वक्फ बोर्ड संशोधन के नाम पर राजद के साथ खड़ी है और सवर्ण भाजपा के साथ। दलित मत टुकड़ों टुकड़ों में अपने अपने नेताओं के साथ खड़े थे। पासवान पांच प्रतिशत से ज्यादा मतों के साथ चिराग पासवान के साथ खड़ी थी तो रविदास बसपा, कांग्रेस के साथ-साथ कुछ स्थानीय नेतृत्व के साथ। ऐसे में कांग्रेस को बैकफुट पर लौटना मजबूरी बन गई।
ठीकरा कृष्णा पर फूटा
कांग्रेस की राजनीतिक चूक का ठीकरा कृष्णा अल्लाबरू पर फूटा। वापसी के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसे रणनीतिकार का इस्तेमाल किया। अशोक गहलोत राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के साथ साथ राजनीति की भी है। फिर मिल बैठकर सीटों की हिस्सेदारी का वही फॉर्मूला आया जो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने तय किया था। कांग्रेस की हालत तो भई गति सांप छछूंदर वाली हो गई। कहा कांग्रेस के एकला चलो की राह पर चलने को सोच रही थी और कहां वर्ष 2020 के स्टैंड पर खड़ी नहीं रह सकी।
2020 में 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस के हिस्से मात्र 61 सीटें आई। इनमें से अधिकांश वही पुरानी सीटें हैं, जहां पार्टी ने पिछली बार चुनाव लड़ा था। जबकि 13 सीटें ऐसी हैं जो पार्टी ने छोड़ दी हैं, जिनमें से कई पर कांग्रेस का पिछला प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा था। कोई नई सीट नहीं मिली, बल्कि दो मौजूदा सीटें महाराजगंज और जमालपुर भी गंवानी पड़ीं। दोनों जगहों पर कांग्रेस के मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं मिला और सीटें महागठबंधन के अन्य घटकों को दे दी गईं। एक सकारात्मक बातें यह हुई कि बिहारशरीफ, बनमनखी और कुम्हरार जैसी नई सीटें जरूर हासिल हुईं।
चौबे गए छब्बे बनने, दुबे बन कर लौटे
एक कहावत है कि चौबे गए छब्बे बनने ,दुबे बन कर लौटे। कांग्रेस पर यह मुहावरा बिलकुल फिट बैठता है। कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु और एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने तो चली बहुत दूर से थी। इन युवा नेताओं ने चुनाव से काफी पहले नौकरी दो पलायन रोको की जो यात्रा बिहार से निकाली उस कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा सदाकत आश्रम में तैयार की गई। राजद सुप्रीमो लालू यादव को इन लोगों ने बताया भी नहीं। सीटों को चिह्नित करने की बात आई तो सदाकत आश्रम से ही करीब 140 सीटें चिह्नित कर राजद सुप्रीमो लालू यादव तक भिजवा दी।
अब चुनाव लड़ने की बात और सीटों की हिस्सेदारी पर जब बात हुई तो 71 सीटों की ऐसी सूची भेज दी जिनमें राजद की कुछ सीटिंग भी थी। यह फैसला भी सदाकत आश्रम से ही हुआ। फिर महागठबंधन की संयुक्त बैठक में इस बात पर चर्चा हुई कि कई और साथी दल जुड़े हैं तो राजद और कांग्रेस अपनी सीटों की संख्या कम करेगी। इस संदर्भ में भी जब 61 सीटें की सूची महागठबंधन के प्लेटफार्म पर रखा गया तो कांग्रेस ने इस सूची में वैसे कई सीटों पर दावा छोड़ दिया जहां कांग्रेस ज्यादा मतों से हारी थी। यह निर्णय भी सदाकत आश्रम में की गई। दरअसल ,कांग्रेस ऐसा कर राजद की बी टीम होने के लांक्षण से मुक्ति की लड़ाई लड़ रही थी और कांग्रेस आलाकमान बिहार में कांग्रेस का भविष्य। कांग्रेस अपनी विरासत यानी मुस्लिम, दलित और सवर्ण मतों के साथ अपनी जड़ तलाश रही थी।
बैक फूट पर क्यों गई कांग्रेस
अब तक बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु और एनएसयूआई के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने कांग्रेस को उसकी जमीन पर खड़ा करने की कवायद की। राहुल गांधी ने भी अधिकार यात्रा के दौरान प्रदेश कांग्रेस की ताकत समझने की कोशिश की। लेकिन कांग्रेस रणनीतिकारों की ओर से इंटरनल सर्वे में राजद की वैशाखी छोड़ने की बात नहीं बताई गई।
उनका आधार वोट मुस्लिम, दलित और सवर्ण संपूर्णता में साथ नहीं है। मुस्लिम तो वक्फ बोर्ड संशोधन के नाम पर राजद के साथ खड़ी है और सवर्ण भाजपा के साथ। दलित मत टुकड़ों टुकड़ों में अपने अपने नेताओं के साथ खड़े थे। पासवान पांच प्रतिशत से ज्यादा मतों के साथ चिराग पासवान के साथ खड़ी थी तो रविदास बसपा, कांग्रेस के साथ-साथ कुछ स्थानीय नेतृत्व के साथ। ऐसे में कांग्रेस को बैकफुट पर लौटना मजबूरी बन गई।
ठीकरा कृष्णा पर फूटा
कांग्रेस की राजनीतिक चूक का ठीकरा कृष्णा अल्लाबरू पर फूटा। वापसी के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसे रणनीतिकार का इस्तेमाल किया। अशोक गहलोत राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के साथ साथ राजनीति की भी है। फिर मिल बैठकर सीटों की हिस्सेदारी का वही फॉर्मूला आया जो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने तय किया था। कांग्रेस की हालत तो भई गति सांप छछूंदर वाली हो गई। कहा कांग्रेस के एकला चलो की राह पर चलने को सोच रही थी और कहां वर्ष 2020 के स्टैंड पर खड़ी नहीं रह सकी।
2020 में 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस के हिस्से मात्र 61 सीटें आई। इनमें से अधिकांश वही पुरानी सीटें हैं, जहां पार्टी ने पिछली बार चुनाव लड़ा था। जबकि 13 सीटें ऐसी हैं जो पार्टी ने छोड़ दी हैं, जिनमें से कई पर कांग्रेस का पिछला प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा था। कोई नई सीट नहीं मिली, बल्कि दो मौजूदा सीटें महाराजगंज और जमालपुर भी गंवानी पड़ीं। दोनों जगहों पर कांग्रेस के मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं मिला और सीटें महागठबंधन के अन्य घटकों को दे दी गईं। एक सकारात्मक बातें यह हुई कि बिहारशरीफ, बनमनखी और कुम्हरार जैसी नई सीटें जरूर हासिल हुईं।
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