हेमंत राजौरा, देहरादून/नई दिल्ली: उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के के पास बादल घटना पर पर्यावरणविद् और वैज्ञानिकों का कहना है इको सेंसेटिव जोन में यह घटना हुई। उत्तराखंड के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक प्रो. एसपी सती ने कहा कि यह आपदा वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी और अनियोजित निर्माण का नतीजा है। उनके मुताबिक, जहां यह तबाही हुई है, वह इलाका एक फ्लडप्लेन है जो पुराने नाले के बहाव क्षेत्र में आता है।
1835 में भी इस नाले में इसी तरह की बाढ़ आई थी, जिसमें मलबे का एक विशाल फैन (पंखानुमा ढेर) बना था। उसी मलबे के ऊपर आज बड़े-बड़े होटल और मकान कर दिए यहां नदी किनारे स्थित एक प्राचीन मंदिर पहले इसी मलबे में दब गया था। बाद में इसे खुदाई करके निकाला गया। पर्यावरणविद् और वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी घटनाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ी है। जंगलों की कटाई और संवेदनशील इलाकों में अंधाधुंध निर्माण से जानमाल का नुकसान अधिक होता है।
ग्लेशियरों पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर
प्रो. सती ने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे गंभीर असर हिमालय के ग्लेशियरों पर पड़ा है। जहां पहले ऊंचाई पर बर्फ स्थायी रूप से जमी रहती थी, अब वहां गर्मियों में ग्लेशियर पूरी तरह खाली हो जाते है। बर्फ और मलबे का ढीला जमाव वहीं रह जाता है। जब कभी भारी बारिश होती है, तो मलबा अचानक तेज गति से नीचे आता है और तबाही मचा देता है।
ये एरिया सबसे ज्यादा संवेदनशील
जोशीमठ, भिलंगना, भटवारी, उखीमठ, दशोली, देवप्रयाग, जखोली, थराली और नारायणबगड़ को सबसे संवेदनशील ब्लॉक बताया गया है। वहीं चमोली, रुद्रप्रयाग और टिहरी गढ़वाल को सबसे ज्यादा खतरे वाले जिले घोषित किया गया है। इलाके की भौगोलिक बनावट (टोपोग्राफी) इन आपदाओं के बढ़ते जोखिम में अहम भूमिका निभाती है।
विकास के नाम पर विनाश बंद हो: हरजीत सिंह
क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट और सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह ने बताया कि उत्तरकाशी में हुआ भयावह नुकसान हमारी आखिरी चेतावनी होनी चाहिए। यह त्रासदी कई खतरनाक चीजों का मिला-जुला असर है। ग्लोबल वार्निंग से मॉनसून की बारिश रौद्र रूप लेती जा रही है। तथाकथित विकास के लिए हम लोग नदियों को बांध रहे है। ऐसा कर हम अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को खुद नष्ट कर रहे है। हर बार एक नई त्रासदी के बाद हम सिर्फ पछताते हैं।
ऐसे में कब तक हम माफी मांगते रहेगे? अब विकास, आपदा और जलवायु नीति पर हमे अपना नजरिया पूरी तरह बदलना होगा। इसलिए हम मांग करते है कि हिमालय के संवेदनशील इलाको में सभी बड़े निर्माण कार्यों पर तुरंत रोक लगाई जाए। साथ ही एक राष्ट्रीय 'जलवायु सहनशीलता मिशन की तुरंत स्थापना की जाए। स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाया जाए। अपने ढांचागत विकास को जलवायु के अनुकूल बनाएं और इस अनियोजित विकास के युग को हमेशा के लिए खत्म करें।
1835 में भी इस नाले में इसी तरह की बाढ़ आई थी, जिसमें मलबे का एक विशाल फैन (पंखानुमा ढेर) बना था। उसी मलबे के ऊपर आज बड़े-बड़े होटल और मकान कर दिए यहां नदी किनारे स्थित एक प्राचीन मंदिर पहले इसी मलबे में दब गया था। बाद में इसे खुदाई करके निकाला गया। पर्यावरणविद् और वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी घटनाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ी है। जंगलों की कटाई और संवेदनशील इलाकों में अंधाधुंध निर्माण से जानमाल का नुकसान अधिक होता है।
ग्लेशियरों पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर
प्रो. सती ने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे गंभीर असर हिमालय के ग्लेशियरों पर पड़ा है। जहां पहले ऊंचाई पर बर्फ स्थायी रूप से जमी रहती थी, अब वहां गर्मियों में ग्लेशियर पूरी तरह खाली हो जाते है। बर्फ और मलबे का ढीला जमाव वहीं रह जाता है। जब कभी भारी बारिश होती है, तो मलबा अचानक तेज गति से नीचे आता है और तबाही मचा देता है।
ये एरिया सबसे ज्यादा संवेदनशील
जोशीमठ, भिलंगना, भटवारी, उखीमठ, दशोली, देवप्रयाग, जखोली, थराली और नारायणबगड़ को सबसे संवेदनशील ब्लॉक बताया गया है। वहीं चमोली, रुद्रप्रयाग और टिहरी गढ़वाल को सबसे ज्यादा खतरे वाले जिले घोषित किया गया है। इलाके की भौगोलिक बनावट (टोपोग्राफी) इन आपदाओं के बढ़ते जोखिम में अहम भूमिका निभाती है।
विकास के नाम पर विनाश बंद हो: हरजीत सिंह
क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट और सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह ने बताया कि उत्तरकाशी में हुआ भयावह नुकसान हमारी आखिरी चेतावनी होनी चाहिए। यह त्रासदी कई खतरनाक चीजों का मिला-जुला असर है। ग्लोबल वार्निंग से मॉनसून की बारिश रौद्र रूप लेती जा रही है। तथाकथित विकास के लिए हम लोग नदियों को बांध रहे है। ऐसा कर हम अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को खुद नष्ट कर रहे है। हर बार एक नई त्रासदी के बाद हम सिर्फ पछताते हैं।
ऐसे में कब तक हम माफी मांगते रहेगे? अब विकास, आपदा और जलवायु नीति पर हमे अपना नजरिया पूरी तरह बदलना होगा। इसलिए हम मांग करते है कि हिमालय के संवेदनशील इलाको में सभी बड़े निर्माण कार्यों पर तुरंत रोक लगाई जाए। साथ ही एक राष्ट्रीय 'जलवायु सहनशीलता मिशन की तुरंत स्थापना की जाए। स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाया जाए। अपने ढांचागत विकास को जलवायु के अनुकूल बनाएं और इस अनियोजित विकास के युग को हमेशा के लिए खत्म करें।
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