नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहलगाम आतंकी हमला और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर से लेकर पाकिस्तान की ओर से भारतीय सैन्य और नागरिक ठिकानों को निशाना बनाने की नाकाम कोशिशों पर जो रवैया अपनाया है, उससे दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की साख पर बहुत बड़ा बट्टा लगा है। लेकिन, अगर हम वैश्विक राजनीति में अमेरिका के इतिहास और उसकी मौजूदा रणनीति को समझें तो ट्रंप प्रशासन अपने देश के कुकर्मों पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश करते नजर आ रहे हैं। क्योंकि, अब न तो अमेरिका पहले जितना एकमात्र शक्तिशाली राष्ट्र रह गया है और न ही भारत की स्थिति कुछ दशक पहले तक वाली रह गई है। इसलिए ऑपरेशन सिंदूर पर वह लगातार उलट बयानी कर रहे हैं। ट्रंप ने पहलगाम हमले के बाद से जिस तरह का बर्ताव किया है, उससे अमेरिका का मंसूबा साफ हो चुका है। हम यहां उसके 5 कुकर्मों पर बात कर रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर में भारत को बराबर दिखाने की कोशिशऑपरेशन सिंदूर को भारत ने घोषित मकसद से पहलगाम आतंकी हमला के गुनहगारों को सजा देने के लिए शुरू किया है। भारत अभी तक अपने इरादे और लक्ष्य से जरा भी नहीं भटका है। लेकिन, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और उनके प्रशासन का इस मामले में शुरू से रवैया ढुलमुल है। ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बातचीत में अपनी पहली प्रतिक्रिया में आतंकवाद के खिलाफ बहुत ही सख्त तेवर दिखाए थे। लेकिन, जब उन्होंने देखा कि भारत गुनहगारों को सजा देने के लिए सही में बहुत गंभीर है और वह ऐसा करके रहेगा, तभी से उन्होंने मिमियाना शुरू कर दिया। पहले कहा कि वह इस मामले में दखल नहीं देंगे। फिर खुद ही संघर्षविराम का क्रेडिट भी लेने लगे। आतंकवाद को अपनी राष्ट्रीय नीति की तरह चलाने वाले पाकिस्तान और उससे पीड़ित भारत को एक ही तराजू में तोलने की शर्मनाक कोशिश की। जब भारत ने शीर्ष स्तर से सख्त संदेश दिया कि मित्रता का मतलब ये नहीं कि उलूल जुलूल बोलना शुरू कर दें तो मध्यस्थता के दावे से पीछे भी हट गए। कुल मिलाकर अमेरिका नहीं चाहता है कि भारत, पाकिस्तान को उसकी गुनाहों की सजा दे, क्योंकि इससे अमेरिका के अपने पिछले कुकर्मों की सच्चाई भी दुनिया के सामने आ सकती है। पाकिस्तान को आतंकवाद का गढ़ बनाने में मदद कीआतंकवाद कितना खतरनाक है, अमेरिका को इसका पहला एहसास तब हुआ जब अल कायदा के ओसामा बिन लादेन ने 9/11 करवाया। इससे पहले अपने हथियार बेचने के चक्कर में कहीं न कहीं, उसने इसे अपनी नीति का हिस्सा बना रखा था। इसका खुलासा पहलगाम हमले के बाद और ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत से ठीक पहले पाकिस्तान ने ही कर दिया। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा कि अमेरिका के लिए '30 वर्षों से हम गंदा काम कर रहे हैं और आतंकवादियों का वही मेजबान रहा है।' उन्होंने यहां तक कहा कि 'गलतियां हमसे हुईं, लेकिन, हमारे साथ इसमें अमेरिका और पश्चिम भी शामिल थे, जिन्होंने आतंकियों को प्रॉक्सी के रूप में उपयोग किया।' ट्रंप के मौजूदा कार्यकाल में आतंकवाद पर अमेरिका की स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति सऊदी अरब में सीरिया के अंतरिम राष्ट्रपति अहमद अल-शरा से हाथ मिलाने भी जरा नहीं हिचके, जो अमेरिका का घोषित आतंकी है और उसने उसपर एक करोड़ डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा था। आज यह तथ्य है कि दुनिया में कहीं भी आतंकवाद है, तो पाकिस्तान उसका एक बहुत बड़ा लॉन्च पैड बना हुआ है। लादेन भी यहीं मिला था। शायद अमेरिका को लग रहा है कि पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने जिस तरह से उसे बेनकाब करना शुरू किया है, अगर उसने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया तो उसके कई और गुनाहों का राज खुल सकता है। एक दुष्ट राष्ट्र के परमाणु कार्यक्रम पर चुप्पी साधे रहा1998 में (11 और 13 मई) जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किए तो उसके कुछ दिनों बाद ही पाकिस्तान ने भी ऐसा ही टेस्ट करके दुनिया को चौंका दिया। भारत का परीक्षण आश्चर्यजनक नहीं था। दुनिया को पता था कि भारत इसमें सक्षम है, क्योंकि वह 18 मई, 1974 में ही पहला परमाणु परीक्षण कर चुका था। 1990 का दशक वह दौर था, जब पाकिस्तान पूरी तरह से अमेरिका की गोद में था। अफगानिस्तान समेत खाड़ी देशों तक में अमेरिका की रणनीति में वह बहुत बड़ा सहयोगी था। पाकिस्तान बिना अमेरिकी जानकारी में परमाणु शक्ति संपन्न बन सकता था, यह हजम होने वाली बात नहीं है। लेकिन, उसके बाद पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम के लिए अपने देश में हीरो के रूप में जाने जाने वाले अब्दुल कादिर खान की पोल खुली तो अमेरिका के पांव से भी जमीन खिसक गई। उनके बारे में खुलासा हुआ कि उन्होंने ईरान, लीबिया और उत्तर कोरिया जैसे देशों तक गैर-कानूनी तरीके से तस्करी के माध्यम से इसकी टेक्नोलॉजी पहुंचाई। 2004 में उन्हें दिखावे के लिए इस्लामाबाद में नजरबंद भी किया गया, लेकिन अमेरिका ने सच्चाई सामने आने के बाद भी 'झूठ, फरेब और चोरी से परमाणु हथियार विकसित करने के लिए' पाकिस्तान पर कोई सख्ती नहीं दिखाई। आज अगर पाकिस्तान, ईरान या उत्तर कोरिया परमाणु हमले की धमकी देते हैं, तो उसके पीछे कहीं न कहीं अमेरिकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। पाकिस्तानी परमाणु हथियारों पर आंखें मूंदे रहने की नीतिऐसा नहीं है कि पाकिस्तान ने परमाणु हथियार बना रखे हैं तो उसपर नियंत्रण के कोई उपाय नहीं बचे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जिस तरह से इसकी कमान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संगठन (IAEA) को सौंपने का सुझाव दिया है, वह नामुमकिन नहीं है। जिस तरह से ऑपरशन सिंदूर से पहले और बाद में पाकिस्तान की ओर से परमाणु ब्लैकमेलिंग की जा रही है, उससे साबित हो चुका है कि वह पूरी तरह से एक दुष्ट राष्ट्र है, जिसे मानवता से कोई लेना-देना नहीं है और सबसे बड़ी बात की वह एक ऐसा गैर-जिम्मेदार मुल्क है, जिसकी फौज आंतकवादी संगठनों की गोद में बैठी है। यही नहीं, हाल ही में जिस तरह से पाकिस्तान से परमाणु रिसाव की खबरें आई हैं, वह तो पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ी खतरे की घंटी है। अभी भी अमेरिका चाहे तो पाकिस्तान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके कम से कम परमाणु हथियारों का पाकिस्तानी जखीरा भरोसेमंद हाथों में दिलवा सकता है। लेकिन, अमेरिका की ओर से भारत के सुझाव पर चुप्पी का यही संकेत है कि जिस तरह से पाकिस्तानी सरकार के मंत्रियों ने अमेरिकी पोल-पट्टी खोलने की साहस दिखानी शुरू की है, उससे अमेरिका के लिए इस मसले पर ज्यादा कुछ बोल पाना भी मुश्किल हो गया है। पाकिस्तानी करतूतों को जानते हुए भी हर संभव मददअंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने ऑपरेशन सिंदूर के बाद फिर एक बार पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर की मदद मंजूर की है। जबकि, दुनिया को पता है कि पाकिस्तान ने अतंरराष्ट्रीय एजेंसियों से मिले फंड का हमेशा दुरुपयोग ही किया है। भारत ने IMF में इसका सख्त विरोध भी किया, क्योंकि उसे पता है कि पाकिस्तानी सेना के माध्यम से आखिरकार यह फंड आतंकवाद वाली नीति पर ही खर्च होना है। अब एक अमेरिकी थिंक टैंक अमेरिकन इंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के सैन्य रणनीतिकार माइकल रुबिन ने अपनी ही सरकार की नीति पर इसके लिए सवाल उठाए हैं। उनका साफ तौर पर कहा है कि ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान को यह फंड दिलवाकर गलती की है। उनके मुताबिक, यह ऐसे समय में किया गया है, जब दिख रहा है कि पाकिस्तान सरकारी नीति के तहत आतंकवाद को प्रायोजित कर रहा है। इसी तरह के सवाल वर्ल्ड बैंक से मिलने वाले फंड को लेकर भी उठते रहे हैं। इन सभी संगठनों पर अमेरिका का दबदबा रहा है, लेकिन उसने कभी भी पाकिस्तान को सहूलियत दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शायद इसके पीछे यही वजह है कि अमेरिका को डर है कि कहीं पाकिस्तान अलग-थलग पड़ा तो वह पूरी तरह चीन की गोद में तो जाकर बैठ ही जाएगा, अमेरिका के उन कारनामों को भी जगजाहिर कर देगा, जिनके दम पर वह अब तक दुनिया का चौधरी बना हुआ है।
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