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1857 का संग्राम: जब औरैया के रणबांकुरों ने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी

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भरेह और चकरनगर के राजाओं ने झांसी की रानी संग मिलाया था हाथ

औरैया, 29 जुलाई (Udaipur Kiran) । 1857- भारत के स्वाधीनता संघर्ष का वह पहला ज्वाला-युग है जब देश की रग-रग में अंगारे फूट पड़े थे। कानपुर से झांसी, मेरठ से दिल्ली और अवध से लेकर बुंदेलखंड तक जब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब उत्तर प्रदेश के औरैया जिले के वीर सपूत भी किसी से पीछे नहीं थे।

चकरनगर के राजा कुंवर निरंजन सिंह और भरेह के राजा रूप सिंह ने सिर पर कफ़न बांधकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया। इन दोनों क्रांतिकारी राजाओं ने न सिर्फ अपने महलों के द्वार खोले, बल्कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का समर्थन कर ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती दी।

अंग्रेजों के खिलाफ बना गुप्त मोर्चा

राजा निरंजन सिंह ने सिकरौली के राव हरेंद्र सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों की बढ़ती ताकत को चुनौती देने के लिए एक रणनीतिक मोर्चा बनाया। उन्होंने इटावा में अंग्रेजों के वफादार कुंवर जोर सिंह को हटाने की मुहिम छेड़ी, और जिले में जनक्रांति का वातावरण बन गया।

शेरगढ़ घाट पर बना क्रांति का पुल

राजा रूप सिंह और निरंजन सिंह ने मिलकर शेरगढ़ घाट पर नावों का पुल बनवाया, जिससे झांसी की क्रांतिकारी सेना को यमुना पार करने में मदद मिली। 24 जून 1857 को झांसी के वीर क्रांतिकारी इसी पुल के रास्ते औरैया की तहसील में दाखिल हुए और उसे ब्रिटिश कब्जे से मुक्त करा लिया।

यह घटना औरैया के इतिहास में अमिट स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।

अंग्रेजी सेना का हमला और वीरता की गाथा

अगस्त 1857 के अंतिम सप्ताह में ब्रिटिश फौज भारी तोपों के साथ नावों से यमुना पार कर भरेह पहुँची। राजा रूप सिंह, जो पहले ही अंग्रेजी चालें समझ चुके थे, किला खाली कर चुके थे। 5 सितंबर को अंग्रेजों ने भरेह का किला ध्वस्त कर दिया, और अगले दिन चकरनगर की ओर कूच कर किले पर कब्जा कर लिया। इसके बाद चकरनगर में स्थाई छावनी स्थापित की गई, और सहसों में सैन्य चौकी बना दी गई ताकि राजा निरंजन सिंह की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके।

1858 में अंग्रेजों का बदला, रियासतें जब्त

क्रांति भले ही असफल घोषित की गई, लेकिन अंग्रेजों ने भरेह और चकरनगर की रियासतें जब्त कर उन्हें प्रतापनेर के राजा जोर सिंह को सौंप दिया।

पर यह कोई पराजय नहीं थी, यह थी एक आज़ादी के लिए दी गई आहुति, जो आगे चलकर 1947 की स्वाधीनता का बीज बन गई।

आजादी के 78 साल बाद भी इतिहास उपेक्षित

आज, जब देश को आजाद हुए 78वर्ष से भी अधिक समय हो चुके हैं, भरेह का ऐतिहासिक किला बदहाली की मार झेल रहा है। न तो सरकार की नजर है, न संरक्षण की कोई योजना। वह किला जो 1857 की चिंगारियों का साक्षी था, अब सिर्फ खंडहरों में तब्दील हो चुका है।

रानी लक्ष्मीबाई का औरैया से ऐतिहासिक जुड़ाव

इतिहास गवाह है कि रानी लक्ष्मीबाई की सेना ने शेरगढ़ घाट से यमुना पार कर औरैया को स्वतंत्र कराया था।

यह एकमात्र ऐसा उदाहरण है जब किसी रानी की सेना ने तहसील स्तर तक ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंका।

गर्व करो औरैया, तुम्हारी मिट्टी आजादी की पहली पुकार में भीग चुकी है

1857 की क्रांति सिर्फ एक बगावत नहीं थी, वह भारत की पहली आजादी की चीख थी — और उस चीख में औरैया, भरेह और चकरनगर के सपूतों की गूंज शामिल थी।

जिले के वरिष्ठ इतिहासकार हरेन्द्र राठौर बताते हैं कि राजा निरंजन सिंह और राजा रूप सिंह जैसे वीरों को इतिहास भले ही मौन कर दे, पर उनकी क्रांति आज भी हवाओं में जिंदा है।

हिंदुस्थान समाचार कुमार

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(Udaipur Kiran) कुमार

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