गुप्तकाशी, 12 अप्रैल . आगामी 15 अप्रैल को ज़ाख मेले को लेकर तैयारियां जोरों पर हैं. हक हकूकधारी गांव के लोग पौराणिक परंपराओं का निर्वहन करते हुए आवंटित कार्यों को गति दे रहे हैं. केदारघाटी अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं धार्मिक परंपराओं के लिए विख्यात है. यहां की परंपराएं कई दृष्टियों में बेजोड़ भी हैं. स्थानीय जनमानस की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा जाख मेला उनमें एक है. इस मेले की तैयारियां इन दिनों अंतिम चरण में हैं. वैसे मेले की तैयारियां चैत माह की 20 प्रविष्ट से शुरू हो जाती है, जब बीज वापन मुहूर्त के साथ जाखराज मेले की कार्ययोजना निर्धारित की जाती है. पारंपरिक रूप से यह मेला प्रतिवर्ष बैशाख माह की 2 प्रविष्ट यानी बैसाखी के अगले दिन होता है. इस बार 15 अप्रैल को जाखधार (गुप्तकाशी) में यह मेला होगा.
क्षेत्र के कुल 14 गांवों का यह पारंपरिक मेला है, किंतु मुख्य सहभागिता तीन गांवों देवशाल, कोठेडा और नारायणकोटी की होती है. क्षेत्र की शुचिता तथा परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए इन तीन गांवों में मेले के तीन दिन पहले यानी अग्निकुंड तैयार करने की कवायद की जाती है.
देवशाल गांव के विद्वान आचार्य हर्षवर्धन देवशाली और बुद्धिजीवी दिनेश शास्त्री बताते हैं ,कि ज़ाख मेले के लिए अग्निकुंड तैयार करने के लिए स्थानीय ग्रामीण लकड़ी एकत्रित करने में जुट गए हैं. 15 अप्रैल को जाखराज दहकते अंगारों के बीच नृत्य कर भक्तों का अपना आशीर्वाद देंगे. केदारघाटी के जाखधार में स्थित जाख मंदिर विशेष रूप से लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है. वैसे गढ़वाल में अनेक स्थानों पर पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर जाख मंदिर हैं और सबका अपना महत्व है किंतु गुप्तकाशी के पास जाखधार क्षेत्र के 14 गांवों के साथ ही केदारघाटी के हजारों लोगों की आस्था का केंद्र है. नारायणकोटी, कोठेडा, नाला, देवशाल, सेमी, भैंसारी, सांकरी, देवर, रुद्रपुर, गड़तरा, क्यूडी, बणसू, खुमेरा समेत 14 गांवों के सहयोग से प्रतिवर्ष जाख मेले का आयोजन किया जाता है .
जाखराजा मंदिर में प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी लगने वाले मेले को लेकर देवशाल नारायणकोटी व कोठेडा के ग्रामीण तैयारियों में जुट गए हैं, जबकि देवशाल के ग्रामीण इस दौरान धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करेंगे. परम्परा के अनुसार कोठेडा और नारायणकोटी के ग्रामीण करीब एक सप्ताह पहले से नंगे पांव, सिर में टोपी और कमर में कपड़ा बांधकर लकडियां एवं पूजा व खाद्य सामग्री एकत्रित करने में जुट जाते हैं. इन लकड़ियों को जब अग्निकुंड में लगाया जाता है तो उसे मूंडी कहा जाता है. आमतौर पर यह लकड़ी बांज की होती है और सबसे ऊपर देव वृक्ष पैंया को शिखर पर रखा जाता है. स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो मेले के लिए करीब 50 क्विंटल लकड़ियों से भव्य अग्निकुंड तैयार किया जाता है.
प्रतिवर्ष बैशाखी पर्व यानी इस वर्ष 14 अप्रैल को रात्रि को पारंपरिक पूजा-अर्चना के बाद अग्निकुंड में रखी लकड़ियों पर अग्नि प्रज्ज्वलित की जाएगी. यह अग्नि रात भर धधकती रहती है. उस अग्नि की रक्षा में नारायणकोटी व कोठेडा के ग्रामीण यहां पर रात्रि जागरण करके जाख देवता के नृत्य के लिए अंगारे तैयार करते हैं. 15 अप्रैल को मेले के दिन जाखराजा कोठेडा और देवशाल होते हुए ढोल नगाडों के साथ जाखधार पहुंचेंगे और दहकते अंगारों के बीच नृत्य कर भक्तों को आशीर्वाद देंगे. देवशाल स्थित विंध्यवासिनी मंदिर में जाखराज की मूर्तियां रखी जाती हैं और एक कंडी में उन्हें जाखधार ले जाया जाता है और मेले में पूजा अर्चना के बाद वापस उन्हें विंध्यवासिनी मंदिर में लाया जाता है.
परम्परा के अनुसार जाख राजा के पश्वा को दो सप्ताह पहले से अपने परिवार व गांव से अलग रहना पड़ता है, जो धार्मिक मान्यताओं से जुडा हुआ है. वह दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं. इस समय नारायणकोटी के सच्चिदानंद पुजारी जाखराजा के पश्वा हैं.
केदारघाटी में ही कई अन्य स्थानों पर भी जाखराज की पूजा अर्चना की परम्परा है. बड़ासू, चौमासी गांवों में भी कुछ इसी तरह के आयोजन होते हैं, किंतु गुप्तकाशी – जाखधार मेले का अलग ही महत्व है. एक तरह से जाखराज इस क्षेत्र के क्षेत्रपाल हैं और सुख समृद्धि के दाता हैं. इस कारण क्षेत्र के लोगों की आस्था भी उनके प्रति अगाध है.
/ बिपिन
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